आज़ादी के अमृत महोत्सव पर प्रकाशित हुई पुस्तक ‘’साझी शहादत ”
मेरठ के लगभग 50 साल पुराने प्रकाशन अनु बुक्स से आज़ादी के अमृत महोत्सव पर डॉ० एस० के० मित्तल, डॉ० के० डी० शर्मा व डॉ० अमित पाठक की पुस्तक “साझी शहादत के कुछ फूल 1857 “ प्रकाशित हुई है। उद्घाटन के अवसर पर प्रकाशक विशाल मित्थल ने बताया कि यह पुस्तक विभिन्न लेखों को संपादित करके निकाली गई है। इस पुस्तक में कुल 41 लेख हैं। जिनमें हिंदुस्तान की जंगे-आज़ादी की साझी शहादत साझी विरासत, आज़ादी की पहली लड़ाई, 1857:एक दृष्टि, 10 मई का शुभ दिन, जवाहर लाल नेहरू की दृष्टि में 1857, दिल्ली चलो, वो 36 घंटे, मिथक और इतिहास, झाँसी की रानी, नवाब मालागढ़: बलीदाद खाँ, शहादत एक वीरांगना महारानी की, साझी शहादत के गौरव बाबू कुँवर सिंह, तात्या टोपे, अज़ीमुल्ला खाँ, वीर नारायण सिंह सोनाखान, बहादुर शाह ज़फ़र के साथ। विश्वासघात, ग़दर आंदोलन, विक्टोरिया पार्क और मंगल पांडे आदि पर लेखकों ने अपने विचार प्रस्तुत किए हैं।
विशाल ने बताया कि पुस्तक को पढ़ने पर पाठक इसे पूरा पढ़े बिना छोड़ ही नहीं पाएगा क्योंकि एक तरफ़ इसमें झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई का मैं अपनी झाँसी किसी को नहीं दूँगी का ज़िक्र है तो दूसरी तरफ़ नाना के निनाद की बात है – जब तक तन में प्राण हैं तुझसे युद्ध जारी रखूँगा,ज़रूर किसी रोज़ तुमसे मिलूँगा, उस दिन घुटनों- घुटनों तक तुम्हारा खून बहाकर रहूँगा । वहीं बात है नवाब वाहिद अली शाह के लेखन की, हो ना बर्बाद मेरे मुल्क की या रब खिलकत, दरो-दीवार पे हसरत की नज़रत करते हैं रुख़्सत अय अहले-वतन। हम तो सफ़र करते हैं।
1857 में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध व्यापक धरातल पर भड़की पहली चिंगारी ने दावानल बनकर पूरे भारत को अपने आग़ोश में ले लिया था। 10 मई को यह आग मेरठ से भड़की। इस क्रांति में हर वर्ग, वर्ण, धर्म, संप्रदाय, लिंग वि आयु वर्ग के लोगों ने अपनी भागीदारी दी और अज़ीमुल्ला के गीत ने लोगों के ज़ेहन में यह गीत भर दिया — हम हैं इसके मालिक हिंदुस्तान हमारा है। साथ ही, रामप्रसाद बिस्मिल की पंक्तियों का ज़िक्र भी पुस्तक को पठनीय बना देता है — बाक़ी मैं ना रहूँ, ना मेरी आरज़ू रहे। जब तक कि तन में जान, रगों में लहू रहे। तेरी ही फ़िक्र या तेरी जुस्तजू रहे।।
यह पुस्तक फ़्लिपकार्ट, अमेज़ोन और अनु बुक्स की वेबसाइट पर उपलब्ध है।